Let the flowers of your smiles bloom in the soil of your struggle,

सुनो
ओ स्त्री....
अपनी ख़ुशी टाँगने को तुम कंधे क्यूँ तलाशती हो?
कमज़ोर हो, ये वहम क्यों पालती हो?
ख़ुश रहो के ये काजल तुम्हारी आँखों मे आकर सँवर जाता है,
ख़ुश रहो के कालिख़ को तुम निखार देती हो।
ख़ुश रहो के तुम्हारा माथा बिंदिया की ख़ुशकिस्मती है,
ख़ुश रहो के तुम्हारा रोम रोम बेशकीमती है।
खुश रहो के तुम न होतीं तो क्या क्या न होता,
न मकानों के घर हुए होते, न आसरा होता।
न रसोइयों से खुशबुएँ ममता की, उड़ रही होतीं,
न त्योहारों पर महफिलें सज रही होतीं।
ख़ुश रहो के तुम बिन कुछ नहीं है,
तुम्हारे हुस्न से ये आसमाँ दिलकश और ये ज़मीं हसीं है।
ख़ुश रहो के रब ने तुम्हें पैदा ही ख़ुद मुख़्तार किया ,
फिर क्यों किसी और को तुमने अपनी मुस्कानों का हक़दार किया ?
ख़ुश रहो, जान लो के तुम क्या हो
चांद सूरज हरियाली हवा हो।
खुशियाँ देती हो, खुशियाँ पा भी लो
कभी बेबात गुनगुना भी लो।
अपनी मुस्कुराहटों के फूलों को अपने संघर्ष की मिट्टी में खिलने दो,
अपने पंखों की ताकत को नया आसमान मिलने दो।
और हाँ मेरी जाँ
मत ढूँढो कंधे...
के सहारे सरक जाया करते हैं....

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