नारी हो तुम
त्याग ही तुम्हारा गहना है,
समर्पण ही तुम्हारा पुरस्कार है,
कुछ ऐसे ही उपमानों से ,
अपने मन को छलती हो तुम,
त्याग ही तुम्हारा गहना है,
समर्पण ही तुम्हारा पुरस्कार है,
कुछ ऐसे ही उपमानों से ,
अपने मन को छलती हो तुम,
बेटी , बहु, पत्नी, माँ इन सबमें,
खुद को भूल जाती तो तुम,
अपने सपनों की आहुति दे कर,
सबके अरमान जीवंत करती हो,
खुद को भूल जाती तो तुम,
अपने सपनों की आहुति दे कर,
सबके अरमान जीवंत करती हो,
अपनी झुठी मुस्कान से ,
गहरे ज़ख्म छुपा लेती हो,
अपने स्नेह-प्रेम का मलहम,
सबके घावों पर लगती हो,
गहरे ज़ख्म छुपा लेती हो,
अपने स्नेह-प्रेम का मलहम,
सबके घावों पर लगती हो,
खुद के मन पर कई हरे ज़ख्म सजा रखे हैं तुमने,
क्यों नही कहती कभी अपने मन की व्यथा?
नारी हो तुम सब दफन कर लेती हो अपने भीतर,
अपने आसुओं को, तकलीफों को,
क्यों नही कहती कभी अपने मन की व्यथा?
नारी हो तुम सब दफन कर लेती हो अपने भीतर,
अपने आसुओं को, तकलीफों को,
अपने टूटते सपनों, अपने खोते हुए अस्तित्व को,
उम्मीदों को छोड़, सबको जोड़ देती हो,
बस फर्क इतना है कि, खुद को पीछे छोड़ देती हो तुम,
सबको सब कुछ बाँट कर भी,संतुष्ट हो जाती हो तुम,
उम्मीदों को छोड़, सबको जोड़ देती हो,
बस फर्क इतना है कि, खुद को पीछे छोड़ देती हो तुम,
सबको सब कुछ बाँट कर भी,संतुष्ट हो जाती हो तुम,
वरदान तो तुम संसार पर हो नारी,
खुद पर तो बस अभिशाप हो,
सबको संपूर्ण कर खुद रिक्तियों में हो!
खुद पर तो बस अभिशाप हो,
सबको संपूर्ण कर खुद रिक्तियों में हो!
0 Comments